आशाओं का घड़ा
एक शाम हो कर प्यास से बेहाल,
अहाते से कदम उठाकर मैं आगे बढ़ा ।
सामने ही रखा हुआ नज़र आया एक घड़ा।
मगर उसके करीब जाते ही ख्याल आया
के शायद वो था मेरी आशाओं का घड़ा।
कुछ पानी था उसमे भरा ,
जब झाँक के मैंने देखा -
तो मुझे एक चेहरा नज़र आया,
पर उस चहरे को मैं पहचान नहीं पाया।
वो मैं ही था या मेरे अंदर से कोई और ही झाँक रहा था?
क्या मैं इस वीरान ज़िंदगी में ,
अपेक्षाओं और उपेक्षाओं कि गरमी से तपती हुई ज़मीन पे,
किसी मरे हुए आदमी को अंदर ही अंदर हांक रहा था?
उस छोटे से मिट॒टी के घड़े ने
मेरे ज़ेहन में जो सवाल उठाये,
इससे पहले कभी भी ऐसे ख्याल नहीं आये।
कितनी कट चुकी फट चुकी और थक चुकी
है ये ज़िंदगी।
दिन के उजाले में भी , निराशाओं के अन्धकार तले,
जल कर बुझ चुकी है ये ज़िंदगी।
निरुद्देश्यता कि प्यास से त्रस्त हुई ज़िंदगी को
राहत देने के लिये ही शायद
लोगों ने बना लिये हैं अपने अपने
मन मंदिरों में आशाओं के घड़े ।
इस घड़े से आशाओं के दो घूँट पी कर ,
लोग तरो ताज़ा हो लेते हैं ।
बेमंज़िल ज़िंदगी की राह पर,
मंज़िल पाने की आशा में ,
दो कदम और चल लेते हैं ।
क्या आशा के घड़े वाकई में
हमारी हैरान परेशान ज़ींदगी के जीने का सहारा हैं?
या फिर सिर्फ राहों में भटकाने वाला एक
दिखावा ढोंग और छलावा हैं?
यह सोच कर मैंने आज
अपने आशाओं के घड़े से नज़र वापस घुमाई,
पहली बार,पहली बार मैंने झूंठी आशाओं से
अपनी प्यास नहीं बुझाई........................
एक शाम हो कर प्यास से बेहाल,
अहाते से कदम उठाकर मैं आगे बढ़ा ।
सामने ही रखा हुआ नज़र आया एक घड़ा।
मगर उसके करीब जाते ही ख्याल आया
के शायद वो था मेरी आशाओं का घड़ा।
कुछ पानी था उसमे भरा ,
जब झाँक के मैंने देखा -
तो मुझे एक चेहरा नज़र आया,
पर उस चहरे को मैं पहचान नहीं पाया।
वो मैं ही था या मेरे अंदर से कोई और ही झाँक रहा था?
क्या मैं इस वीरान ज़िंदगी में ,
अपेक्षाओं और उपेक्षाओं कि गरमी से तपती हुई ज़मीन पे,
किसी मरे हुए आदमी को अंदर ही अंदर हांक रहा था?
उस छोटे से मिट॒टी के घड़े ने
मेरे ज़ेहन में जो सवाल उठाये,
इससे पहले कभी भी ऐसे ख्याल नहीं आये।
कितनी कट चुकी फट चुकी और थक चुकी
है ये ज़िंदगी।
दिन के उजाले में भी , निराशाओं के अन्धकार तले,
जल कर बुझ चुकी है ये ज़िंदगी।
निरुद्देश्यता कि प्यास से त्रस्त हुई ज़िंदगी को
राहत देने के लिये ही शायद
लोगों ने बना लिये हैं अपने अपने
मन मंदिरों में आशाओं के घड़े ।
इस घड़े से आशाओं के दो घूँट पी कर ,
लोग तरो ताज़ा हो लेते हैं ।
बेमंज़िल ज़िंदगी की राह पर,
मंज़िल पाने की आशा में ,
दो कदम और चल लेते हैं ।
क्या आशा के घड़े वाकई में
हमारी हैरान परेशान ज़ींदगी के जीने का सहारा हैं?
या फिर सिर्फ राहों में भटकाने वाला एक
दिखावा ढोंग और छलावा हैं?
यह सोच कर मैंने आज
अपने आशाओं के घड़े से नज़र वापस घुमाई,
पहली बार,पहली बार मैंने झूंठी आशाओं से
अपनी प्यास नहीं बुझाई........................
Waiting for your comments friends (for those who understand hindi and hence can understand this poem).
4 comments:
Superb!! simply awesome man.And I am saying this from the bottom of my heart,coz I can very easily relate to what u have said,infact everybody can.Its so close to our lives.We all are living on that ray of hope which are false many time,but still it helps us to remain alive, suna hai na "ummed par hi duniya kayam hai".hum sab isi jhoote ya sachhe ghade ke dum par zinda hai. Great work gyani ji..
Good! Very nice, Amit i appreciate this. You know we all have something in life going inside kuch kuch kuch kuch........... but "ANDER KE KUCH KUCH KO KALE SAFED MEIN UTARNE
(the ability to give words to your thought) KE NEMAT HAR KISI KO NAHI HOTI "
Good. Keep it up.
No, I do not agree with you. It is not necessary that we should follow only single path in life, because if we have to follow only single path continously in life, it will become boring(neeras) and you are not living the life.To live the life, always try experimenting the new things in life and then only you can enjoy the life and know how good the human life is.
By the way poem is very nice, keep it up, aur haan kiski yaad main likhi hai?
its really very nice....n relates to all of us...finally gyani ji on blogs.....
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